User:Psanjaykumar/ख़ुद निकाल लो या इंतजार करो
ख़ुद निकाल लो या इंतजार करो
एक बच्चा अपनी मां के साथ किसी रिश्तेदार के घर गया हुआ था। बच्च बड़ा प्यारा था। रिश्तेदार ने जब मां को चाय बनाकर दी, तो बच्चे को भी कुछ देना जरूरी था। सो, वह टाफ़ियों से भरा मर्तबान ले आया। उसने ढक्कन खोलकर बच्चे से कहा, ‘बेटे, इसमें से जितनी चाहो, टाफ़ियां ले लो।’
और कोई बच्च होता, तो ख़ुश होकर तुरंत मर्तबान में हाथ डाल देता, पर इस बच्चे ने कुछ नहीं किया, चुपचाप खड़ा रहा। रिश्तेदार ने दुबारा कहा और मर्तबान उसके थोड़ा और पास ले गया। लेकिन बच्च टाफ़ियों को देखता रह गया, पर उसने हाथ नहीं बढ़ाया। अब तो अजीब स्थिति हो गई। न तो मेजबान ने, न मां ने सोचा था कि वह ऐसी बात करेगा।
मां जानती थी कि बच्चे को टाफ़ियां बहुत पसंद हैं, इसलिए उसे और ज्यादा हैरानी हो रही थी। मां को लगा कि बच्च रिश्तेदार के सामने झिझक रहा है, इसलिए इस बार उसने ख़ुद कहा कि बेटे टाफ़ियां निकाल लो। लेकिन बच्चे पर कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई, वह वैसे ही खड़ा रहा।
आख़िर रिश्तेदार ने एक मुट्ठी टाफ़ियां निकालीं और उन्हें बच्चे की दोनों जेबों में डाल दिया। बच्च ख़ुश। अब मां को बेहद उत्सुकता थी यह जानने की कि उसके बच्चे ने इस तरह की तहजीब आख़िर सीखी कहां से! वापसी में घर जाते हुए मां ने बच्चे से पूछा कि उसने टाफ़ियां ख़ुद क्यों नहीं निकालीं, तो बच्चे ने बड़ी गंभीरता से जवाब दिया, ‘मां, तुमने ध्यान नहीं दिया, अगर मैं अपने छोटे-से हाथ से टाफ़ियां लेता, तो आख़िर कितनी आ पातीं! लेकिन चाचाजी ने अपनी मुट्ठी में भरकर टाफ़ियां दीं, तो मेरी दोनों जेबें भर गईं।’
सबक़ जब हम ख़ुद लेते हैं, ख़ुद कोई इच्छा करते हैं, तो हमें अपेक्षाकृत कम ही मिलता है।